Class 8 sanskrit chapter 14 hindi translation
चतुर्दशः पाठः
आर्यभटः
Hindi translation
पूर्वदिशायाम् उदेति सूर्यः पश्चिमदिशायां च अस्तं गच्छति इति दृश्यते हि लोके। परं न अनेन अवबोध्यमस्ति यत्सूर्यो गतिशील इति । सूर्योऽचलः पृथिवी च चला या स्वकीये अक्षे घूर्णति इति साम्प्रतं सुस्थापितः सिद्धान्तः। सिद्धान्तोऽयं प्राथम्येन येन प्रवर्तितः स आसीत् महान् गणितज्ञः ज्योतिर्विच्च आर्यभटः पृथिवी स्थिरा वर्तते इति परम्परया प्रचलिता रूढिः तेन प्रत्यादिष्टा।
सूर्य पूर्व दिशा से उदय होता है और पश्चिम में छिप जाता है ऐसा ही संसार में देखा गया है। परंतु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि सूर्य गतिशील है। सूर्य स्थिर है और पृथ्वी गतिशील है जो अपने अक्ष पर घूमती है यह सिद्धांत अब पूरी तरह स्थापित है। इस सिद्धान्त को सर्वप्रथम जिन्होंने प्रारम्भ किया, वह महान गणित के ज्ञाता और ज्योतिषी आर्यभट थे। पृथ्वी स्थिर है, परम्परा से चली आ रही इस प्रथा का उन्होंने खण्डन किया।
तेन उदाहृतं यद् गतिशीलायां नौकायाम् उपविष्टः मानवः नौकां स्थिरामनुभवति, अन्यान् च पदार्थान् गतिशलान् अवगच्छति । एवमेव गतिशीलायां पृथिव्याम् अवस्थितः मानवः पृथिवीं स्थिरामनुभवति सूर्यादिग्रहान् च गतिशीलान् वेत्ति ।
उन्होंने उदाहरण दिया कि चलती हुई नाव में बैठा हुआ मनुष्य नाव को रुकी हुई अनुभव करता है और दूसरे पदार्थों को गतिशील समझता है। इसी तरह ही गति युक्त पृथ्वी पर स्थित मनुष्य पृथ्वी को स्थिर अनुभव करता है और सूर्य आदि ग्रहों को गतिशील जानता है।
476 तमे ख्रिस्ताब्दे आर्यभटः जन्म लब्धवानिति तेनैव विरचिते 'आर्यभटीयम् इत्यस्मिन् ग्रन्थे उल्लिखितम् । ग्रन्थोऽयं तेन त्रयोविंशतितमे वयसि विरचितः । ऐतिहासिकस्रोतोभिः ज्ञायते यत पाटलिपुत्रं निकषा आर्यभटस्य वेधशाला आसीत्। अनेन इदम् अनुमीयते यत् तस्य कर्मभूमिः पाटलिपुत्रमेव आसीत् ।
सन् 476 ई. में आर्यभट ने जन्म लिया, ऐसा उनके द्वारा रचित 'आर्यभटीयम्' नामक इस ग्रन्थ में उल्लेख किया है। यह ग्रन्थ उसने तेईसवें वर्ष की आयु में रचा था। ऐतिहासिक स्रोतों से जाना जाता है कि पाटलिपुत्र (पटना) के निकट आर्यभट की प्रयोगशाला थी। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि उनका कार्यक्षेत्र पाटलिपुत्र (पटना) ही था।
आर्यभटस्य योगदानं गणितज्योतिषा सम्बद्धं वर्तते यत्र संख्यानाम् आकलनं महत्त्वम् आदधाति । आर्यभटः फलितज्योतिषशास्त्रे न विश्वसिति स्म। गणितीयपद्धत्या कृतम् आकलनमात्य एव तेन प्रतिपादितं यद् ग्रहणे राहुकेतुनामको दानवौ नास्ति कारणम् । तत्र तु सूर्यचन्द्रपृथिवी इति त्रीणि एव कारणानि ।
आर्यभट का योगदान गणितज्योतिष से सम्बन्ध रखता है जहाँ संख्याओं की गणना महत्त्व रखती है। आर्यभट फलित ज्योतिषशास्त्र में विश्वास नहीं करते थे। गणित शास्त्र की पद्धति से किए गए आकलन पर आधारित करके ही उन्होंने कहा कि ग्रहण में राहु और केतु नामक राक्षस कारण नहीं हैं। वहाँ पर सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी ये तीनों ही कारण हैं।
सूर्य परितः भ्रमन्त्याः पृथिव्याः, चन्द्रस्य परिक्रमापथेन संयोगाद् ग्रहणं भवति । यदा पृथिव्याः छायापातेन चन्द्रस्य प्रकाशः अवरुध्यते तदा चन्द्रग्रहणं भवति । तथैव पृथ्वीसूर्ययोः मध्ये समागतस्य चन्द्रस्य छायापातेन सूर्यग्रहणं दृश्यते ।
सूर्य के चारों ओर घूमती हुई पृथ्वी का चन्द्रमा के घूमने के मार्ग के संयोग से ग्रहण होता है। जब पृथ्वी की छाया पड़ने से चन्द्रमा का प्रकाश रुक जाता है तब चन्द्रग्रहण होता है। वैसे ही पृथ्वी और सूर्य के बीच में आए हुए चन्द्रमा की परछाई से सूर्यग्रहण दिखाई देता है।
समाजे नूतनानां विचाराणां स्वीकारेण प्रायः सामान्यजनाः काठिन्यमनुभवन्ति। भारतीयज्योतिःशास्त्रे तथैव आर्यभटस्यापि विरोधः अभवत् । तस्य सिद्धान्ताः उपेक्षिताः। स पण्डितम्मन्यानाम् उपहासपात्रं जातः । पुनरपि तस्य दृष्टिः कालातिगामिनी दृष्टा । आधुनिकैः वैज्ञानिकैः तस्मिन्, तस्य च सिद्धान्ते समादरः प्रकटितः ।
समाज में नए विचारों को स्वीकार करने में अधिकतर सामान्य लोग कठिनाई को अनुभव करते हैं। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में वैसे ही आर्यभट का विरोध हुआ। उनके सिद्धान्त अनसुने कर दिए गए। वह स्वयं को भारी विद्वान मानने वालों की हँसी का पात्र बन गए। फिर भी उनकी दृष्टि समय को लाँघने वाली देखी गई। किन्तु आधुनिक वैज्ञानिकों ने उनमें, और उनके सिद्धान्त में आदर प्रकट किया।
अस्मादेव कारणाद् अस्माकं प्रथमोपग्रहस्य नाम आर्यभट इति कृतम्। वस्तुतः भारतीयायाः गणितपरम्परायाः अथ च विज्ञानपरम्परायाः असौ एकः शिखरपुरुषः आसीत्।
इसी कारण से हमारे पहले उपग्रह का नाम आर्यभट रखा गया। वास्तव में भारत की गणित परम्परा के और विज्ञान की परम्परा के वह एक शिखर पुरुष थे।
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